20-05-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन

विधाता, वरदाता-पन की स्टेज

विधाता और वरदाता - यह दोनों ही गुण अपने में अनुभव करते हो? जैसे बाप विधाता भी है और वरदाता भी है, वैसे ही अपने को भी दोनों ही प्राप्ति-स्वरूप समझते हो? जितना-जितना वरदाता बनते जायेंगे उतना ही वरदाता बन वरदान देने की शक्ति बढ़ती जायेगी। तो दोनों ही अनुभव होते हैं वा अभी सिर्फ विधाता का पार्ट है, अन्त में वरदाता का पार्ट होगा? क्या समझती हो? (कोई ने कहा दोनों पार्ट अभी चल रहे हैं, कोई ने कहा अभी एक पार्ट चल रहा है) वरदान किन आत्माओं को देते हो और वरदाता किसके लिए बनते हो? एक होता है नॉलेज को देना, दूसरा है वरदान रूप में देना। तो विधाता हो या वरदाता हो? किन्हों को वरदान देती हो? विधाता अर्थात् ज्ञान देने वाले तो बनते ही हो, लेकिन कहाँ विधाता के साथ- साथ वरदाता भी बनना पड़ता है। वह कब? जब कोई ऐसी आत्मा हिम्मतहीन, निर्बल लेकिन इच्छुक होती है, चाहना होती है कि हम कुछ प्राप्ति करें। ऐसी आत्माओं के लिए ज्ञान-दाता बनने के साथ-साथ आप विशेष रूप से उस आत्मा को बल देने के लिए शुभ-भावना रखते हो वा शुभचिन्तक बनते हो। तो विधाता के साथ-साथ वरदाता भी बनते हो। एक्स्ट्रा बल अपनी तरफ से उनको वरदान के रूप में देते हो। तो वरदान भी देना होता और दाता भी बनना होता है। इसलिए दोनों ही हो। यह अनुभव कब किया है? भक्ति मार्ग में साक्षात्कार द्वारा वरदान प्राप्त होता है क्योंकि वह आत्माएं इतनी निर्बल होती हैं जो ज्ञान धारण नहीं कर सकतीं स्वयं पुरुषार्थी नहीं बन सकतीं। इसलिए वरदान की इच्छा रखती हैं, और वरदान रूप में उनको कुछ-न-कुछ प्राप्ति होती है। इस रीति जो कमज़ोर आत्माएं आपके सामने आती हैं, जिन आत्माओं की इच्छा को देखकर तरस की, रहम की भावना आती है। रहमदिल बन अपनी सभी शक्ति की मदद दे उनको ऊंचा उठाना - यह है वरदान का रूप। अभी बताओ कि दोनों ही हो या एक? कोई आत्माओं के प्रति आप लोगों को विशेष प्रोग्राम भी रखने पड़ते हैं, क्योंकि अपनी शक्ति से वह धारण नहीं कर पाते हैं। तो शक्ति का वरदान देने वाली शिव-शक्तियां हो। इसलिए सुनाया कि अभी ज्यादा सर्विस चलनी है नॉलेज के विधातापन की। अन्त में नॉलेज देने की सर्विस कम हो जायेगी, वरदान देने की सर्विस ज्यादा होगी। इसलिए अन्त के समय वरदान लेने वाली आत्माओं में वही संस्कार मर्ज हो जायेंगे और वही मर्ज हुए संस्कार द्वापर में भक्त के रूप में इमर्ज होंगे। तो अभी नॉलेज अर्थात् ज्ञान के दाता की सर्विस है, फिर वरदाता की होगी। समझा? फिर इतना समय ही नहीं होगा, न आत्मा में शक्ति होगी। इसलिए वरदाता बन वरदान देने की सर्विस होगी। अभी यह सर्विस कम करते हो, फिर ज्यादा करनी होगी। अभी वारिस बनाने की सर्विस है, फिर होगी सिर्फ प्रजा बनाने की सर्विस। परन्तु थोड़े समय में इतनी प्रजा बनाने के लिए वरदाता मूर्त्त बनने के लिए मुख्य क्या अटेन्शन रखना पड़े? वरदातामूर्त बन थोड़े समय में अनेक आत्माओं को वरदान दे सकें, उसके लिए क्या करना पड़े? वरदाता बनने के लिए मुख्य पुरूषार्थ यही करना पड़े, बार-बार जो भक्ति मार्ग में गायन किया है कि वारी जाऊं। यह गायन अगर प्रैक्टिकल में कर लो तो जिसके ऊपर वारी जाते हो वह आपको भी सर्व वरदान देकर वरदातामूर्त बना देते हैं। तो हर समय, हर कर्म में, हर संकल्प में यह सोचो कि ‘वारी जाऊं’ का जो वचन दिया था वह पालन कर रही हूँ। तो बाप वरदातामूर्त है ना। आप सभी भी बाप समान वरदातामूर्त बन जाते हो। तो इतनी चेकिंग करते हो? एक संकल्प भी किसके प्रति न हो, जो भी संकल्प उठता है उसमें बाप के प्रति कुर्बान का, वारी जाने का रहस्य भरा हुआ हो। ऐसी चेकिंग करते रहो तो फिर माया सामना करने का साहस रख सकेगी? सामना करने का साहस नहीं रखेगी, लेकिन बार-बार नमस्कार कर विदाई लेगी। समझा?

तो ऐसा बनने के लिए इतनी चेकिंग चाहिए। और दूसरी बात - वरदानीमूर्त बनने के लिए सर्व शक्तियों को अपने में देखना चाहिए कि इतना स्टॉक जमा किया है जो दूसरे को दे सकूं? अगर जमा ही नहीं किया होगा तो दूसरे को क्या देंगे! तो वरदानीमूर्त बनने के लिए सर्व शक्तियों को अपने में इतना जमा करना पड़े जो दूसरे को दे सकें। इतना जमा का खाता है? वा कमाया और खाया, यह रिजल्ट है? एक होता है कमाया और खाया - दूसरा होता है जमा करना और तीसरा होता है जो इतना भी नहीं कमा सकते जो स्वयं को भी चला सकें, दूसरे की मदद ले अपने को चलाना पड़ता। तो तीसरी स्टेज वा दूसरी स्टेज से पार हुए हो? वह है कमाया और खाया। और पहली स्टेज है जमा करना। तो रोज अपना बैंक बैलेन्स देखते हो? बहुत भिखारी भीख मांगने के लिए आयेंगे। तो इतना ही जमा करना पड़े जो सभी को दे सको। जमा करना सीखे हो? कितना जमा किया है, खाते से तो पता लग जाता है ना। अपना खाता देखा है? कई ऐसे भी होते हैं जो निकाल कर खाते जाते हैं, मालूम नहीं पड़ता है। फिर जब अचानक खाता देखते हैं तो समझते हैं कि यह क्या हो गया! ऐसे तो यहाँ होंगे ही नहीं। अच्छा।

जमा किये हुए खाते वाले का विशेष गुण वा कर्त्तव्य क्या दिखाई देगा? जिसके पास खजाना जमा होगा उसकी सूरत से एक तो वर्तमान और भविष्य अर्थात् ईश्वरीय नशा और नारायणी नशा दिखाई देगा और उनके नयनों वा मस्तक से सर्व आत्माओं को स्पष्ट अपना नशा दिखाई देगा। यह जमा होने वाले की निशानी दिखाई देगी। उनकी सूरत ही सर्विसएबल होगी, सूरत ही सर्विस करती रहेगी। जिसके पास जास्ती अथवा कम जमा होता है तो वह भी उनकी सूरत से दिखाई देता है। तो जमा किए हुए की सूरत वा मूरत से ही मालूम पड़ जाता है। जैसे जड़ चित्र बनाते हैं तो उनमें भी कई ऐसे चिह्न दिखाते हैं जो उन जड़ चित्रों से भी अनुभव होता है। वह बोलते तो नहीं है, लेकिन सूरत वा मूर्त से अनुभव होता है। वैसे ही आपकी यह सूरत हर संकल्प, हर कर्म को स्पष्ट करेगी। तो अपने आप को ऐसा चेक करो कि मेरी सूरत से कोई भी आत्मा को नशा व निशाना दिखाई देता है? जैसे कोई ऊंच कुल का बच्चा होता है तो वह भले गरीब बन जाये लेकिन उसकी झलक और फलक दिखाती है कि यह कोई ऐसे ऊंच कुल का है। वैसे ही जो सदैव खज़ाने से सम्पन्न होगा उसकी सूरत से कभी छिप नहीं सकता। आपके पास दर्पण है? सदैव साथ रखते हो? हर समय दर्पण देखते रहते हो? कई ऐसे भी होते हैं जिनको बार-बार दर्पण देखने की आवश्यकता भी नहीं होती है। तो आप सेकेण्ड-सेकेण्ड देखते हो वा देखने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती? जब तक अपनी चेकिंग का नेचरल अभ्यास हो जाये तब तक बार-बार चेकिंग करनी पड़ती है। धीरे-धीरे फिर ऐसे बन जायेंगे जो बार-बार देखने की भी दरकार नहीं पड़ेगी। सदैव सजे-सजाये ही रहेंगे। जब तक यह सदैव सजे-सजाये रहने की आदत पड़ जाये तब तक बार-बार अपने को देखना और बनाना पड़ता है। जब दो-चार बार देख लिया कि जब माया किसी भी प्रकार से, किस भी रीति से मेरे श्रृंगार को बिगाड़ नहीं सकती, फिर बार-बार देखने की ज़रूरत ही नहीं। फिर तो अपना साक्षात्कार दूसरों के द्वारा भी आपको होता रहेगा। दूसरे स्वयं वर्णन करेंगे, गुण गान करेंगे। अच्छा।

सभी विजयी रत्न हो ना। विजयी रत्न तो हो, लेकिन विजय की माला कितनी अपने गले में डाली है, वह भी देखना पड़े। यह विजय की माला दिन- प्रतिदिन बढ़ती जाती है। तो बढ़ रही है और कहाँ तक बढ़ी है - यह भी देखना पड़े। जब माला लम्बी होती है तो फिर क्या करते हैं? डबल करके डालते हैं, जिससे सारा श्रृंगार सुन्दर बन जाता है। तो इतनी बड़ी माला अपने गले में डाली है? यह भी चेक करो कि आज के दिन मेरे विजय की माला में कितने विजयी रत्न बढ़े। अच्छा।

दृष्टि से सृष्टि बदलती है -यह भी अभी की कहावत है। कैसी भी तमोगुणी वा रजोगुणी आत्मायें आयें, लेकिन आपकी सतोगुणी दृष्टि से उनकी सृष्टि, उनकी स्थिति बदल जाये, उनकी वृत्ति बदल जाये। आगे चलकर यह अनुभव बहुत आत्मायें करेंगी। जैसे यादगार दिखाया हुआ है कि तीनों लोकों का साक्ष्त्कार कराया। यह भी अभी का गायन है। आप लोगों के सामने आने से दृष्टि द्वारा उन्हों को तीन लोक तो क्या अपनी पूरी जीवन कहानी का मालूम पड़ जाये। जैसे शुरू में स्थापना के समय ज्ञान की सर्विस इतनी नहीं थी, नज़र से निहाल करते थे। तो अन्त में भी ज्ञान की सर्विस करने का मौका नहीं मिलेगा। जो आदि हुआ है वही अन्त में आप लोगों द्वारा चलना है। जैसे वृक्ष का पहले बीज प्रत्यक्ष रूप में होता है, बीच में वह बीज मर्ज हो जाता है, फिर अन्त में वही बीज प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देता है। तो आप आदि आत्माओं में भी जो पहला फाउन्डेशन पड़ा हुआ है वही सर्विस अन्त में भी होनी है। अच्छा।